प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जन्मतिथि के मौके पर उनकी होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण करते हुए कहा कि देश अतीत की गलतियों को दुरुस्त करने की राह पर है। उनका मतलब आजादी के योद्धाओं की आजाद भारत में हुई उपेक्षा से था। इस क्रम में उन्होंने इंडिया गेट पर नेताजी की भव्य मूर्ति स्थापित करने की घोषणा के साथ ही सरदार वल्लभभाई पटेल, बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर और बिरसा मुंडा जैसी विभूतियों की स्मृतियों को सम्मान देने के लिए सरकार की ओर से उठाए गए कदमों का जिक्र किया।
इसमें संदेह नहीं कि देश की आजादी के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानियां दीं और इन सबकी तपस्या के परिणाम के रूप में देश को आजादी हासिल हुई। खास तौर पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बात की जाए तो यह सच है कि आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को उस रूप में मान्यता नहीं मिल सकी, जैसी मिलनी चाहिए थी। कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में चली आंदोलन की अहिंसक धारा की बहुत ज्यादा चर्चा हुई, इस मुकाबले नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज की प्रभावी भूमिका काफी हद तक पृष्ठभूमि में रह गई। मगर इसके बावजूद देश के आम जनमानस में नेताजी का स्थान कहीं से भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा। आज भी देशवासियों के मन में नेताजी के लिए वैसा ही आदर और सम्मान है जैसा गांधी, नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के लिए।
दूसरी बात यह कि आजादी की लड़ाई के दौरान इसमें अलग-अलग तरह से योगदान कर रहे इन व्यक्तित्वों में विभिन्न बिंदुओं पर असहमतियों के बावजूद आपसी तालमेल और परस्पर सम्मान की भावना लगातार बनी रही। उन सबको पता था कि रास्तों को लेकर उनकी प्राथमिकताओं में भले अंतर हो, मंजिल सबकी एक है। वे सब भारत को एक स्वतंत्र, सम्मानित और संपन्न देश के रूप में देखना चाहते थे। इसलिए चाहे नेताजी हों या स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानी, उनके योगदान को रेखांकित करना, उनके लिए अलग-अलग तरह से सम्मान प्रदर्शित करना तो स्वाभाविक है, हर कृतज्ञ राष्ट्र ऐसा करता है, लेकिन गलती से भी इसे राजनीति का हिस्सा नहीं बनने देना चाहिए। ऐसा हुआ तो यह एक गलत और खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। ये स्वतंत्रता सेनानी देशवासियों की साझा विरासत का हिस्सा हैं।
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