लक्ष्मीकांता चावला –
लगभग चार दशक पहले तक पूरे देश में चुनाव एक ही समय होते थे। विधानसभा और लोकसभा के लिए भारत की जनता वोट करती थी। अपने प्रतिनिधि चुनती थी। लोकतंत्र के मंदिर में अपने-अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए मानो संगम का मेला ही लगता था। धीरे-धीरे परिस्थितिवश देश के अनेक भागों में चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे, जिसका यह परिणाम हुआ कि अपना देश हर वर्ष ही चुनावी संग्राम में जूझता है। जहां कहीं पहले यह आदर्श वाक्य था कि साध्य के लिए साधन भी शुद्ध चाहिए। अब साधनों की शुचिता तो अतीत की बात हो गई। साध्य अर्थात चुनावों में सफलता, सत्ता प्राप्ति एकमात्र लक्ष्य हो गया। उसके लिए साम-दाम-दंड-भेद या इससे भी कुछ आगे है तो इसका प्रयोग किया जा रहा है।
जब से 2022 में पांचों विधानसभा के चुनावों की घोषणा हुई तभी से राजनेताओं ने एक तो आश्वासनों की बौछार की। मुफ्तखोरी बनी नहीं रहेगी, अपितु बढ़ेगी इसका भरोसा दिया। जनता को रोजगार, उद्योग-धंधे, चिकित्सा शिक्षा के स्वावलंबन की कोई चर्चा नहीं की और इसके साथ ही सत्ता की दौड़ में लगे ये राजनेता दल बदलने के सारे पिछले रिकार्ड तोड़ रहे हैं। हो सकता है कि चुनावों के नामांकन की तिथि तक सैकड़ों और तथाकथित नेता दल बदल लेंगे। इनको तथाकथित इसलिए कहा है क्योंकि ये नेतृत्व नहीं कर रहे, अपितु अपनी-अपनी सत्ता या परिवार की सत्ता सुरक्षित रखने के लिए ही काम कर रहे हैं।
कभी हरियाणा से निकला— आया-राम गया-राम का व्यंग्य वाक्य अब पूरे देश में वैसे ही फैल गया जैसे केरल में एक कोरोना रोगी मिलने के बाद पूरा देश कोरोना की पहली, दूसरी और अब तीसरी लहर में जकड़ा तड़प रहा है। आज का प्रश्न यह है कि समाज दल-बदलुओं को स्वीकार क्यों करता है? आमजन का यह कहना है कि राजनीतिक पार्टियां उत्तर दें, वे उन लोगों के लिए अपने दरवाजे पलक पांवड़े बिछाकर हर समय खुले क्यों रखते हैं, जो सिद्धांतहीन हैं पर सत्ता के लालच में दौड़ते हुए उनके दरवाजों पर आते हैं, फूलों का आदान-प्रदान होता है, पटे या पटके गलों में डाले जाते हैं और दल बदलू नेता इतने समभाव वाले दिखाई देते हैं कि निंदा, स्तुति, मान-अपमान से उन्हें कोई अंतर ही नहीं पड़ता। प्रश्न एक यह भी है कि जो लोग उस पार्टी के वफादार नहीं, जिससे उन्हें पहचान मिली, सम्मान मिला, राजपद प्राप्त हुए और उनकी जिंदाबाद के नारे गली-गली में लगे, ऐसे लोग दूसरी पार्टी में जाकर उनके कैसे वफादार हो जाएंगे। जो लोग सार्वजनिक सभाओं में अपनी जनता के दुख-सुख में साथी बनने की घोषणा करते रहे वे केवल अपने परिवार की विधानसभा सीट के लिए ही क्यों दल बदल जाते हैं? अपने मतदाताओं को धोखा देते हैं?
अभी तो हालत यह हो गई जो उत्तर प्रदेश ने देखा, पंजाब ने देखा, उत्तराखंड ने दिखाया कि ये याद ही नहीं रहता कि दल बदलने वाले नेता पहले किस-किस गली का चक्कर लगाकर आए हैं और वर्तमान पार्टी में आने से पहले किस पार्टी में धन-सत्ता कमा रहे थे। उत्तर प्रदेश का उदाहरण तो बड़ा अफसोसजनक है। सरकार के एक मंत्री कांग्रेस से बीएसपी में, बीएसपी से समाजवादी पार्टी में, फिर भाजपा में और भाजपा से वापस समाजवादी पार्टी में चले गए। संभवत: वहां और कोई ऐसी बड़ी पार्टी नहीं, जिसकी दलदल में वह डुबकी लगा सकें। आश्चर्य यह भी है कि दल बदलने की बीमारी का एक सीजन विशेष ही होता है। वर्षों तक एक पार्टी में सत्तासुख भोगने के बाद अचानक ही इन्हें दलितों की पीड़ा, कमजोरों के साथ हो रहा अन्याय, युवकों की बेरोजगारी का दर्द तंग करने लगता है और फिर एक नहीं बल्कि आधा दर्जन से ज्यादा मंत्री और विधायक दूसरी पार्टी का झंडा और डंडा थाम लेते हैं। पंजाब में तो दो बहुत दुखद, पर रोचक दल बदल हुए। एक एमएलए भाजपा में गए। फूलों के हार पहनाए, पर अगले दिन ही वापस कांग्रेस में चले गए। अमृतसर जिले के एक कांग्रेस नेता चौबीस घंटे भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में न काट सके। वहां उन्हें जितने फूल और पटके मिले थे उतने घंटे बिताए बिना ही वे वापस कांग्रेस में आ गए। पंजाब का शायद ही ऐसा कोई शहर बचा हो जहां यह बीमारी स्वार्थी दल बदली की न फैल रही हो। उत्तराखंड का भी एक ऐसा ही उदाहरण है। उसके अनुसार अपनी पुत्रवधू के लिए जब टिकट प्राप्त नहीं कर सके तो फिर वापस कांग्रेस में चले गए। समाचार क्यों मिलता है भाजपा का पलटवार, कांग्रेस की पूर्व महिला अध्यक्षा भाजपा में आ गई। आदान-प्रदान हो रहा है। आप जानते ही हैं कि सत्तापतियों और धनपतियों को शगुन ज्यादा मिलता है। मुलायम सिंह की पुत्रवधू भी चुनाव लडऩे के लिए यूं कहिए घरेलू राजनीतिक क्लेश के कारण अब भाजपा की ध्वज वाहिका बन चुकी हैं।
अब चुनाव पूर्व दल बदलने की बात छोडि़ए, चुनावों के बाद जो शब्द राजनेताओं ने दिया हार्स ट्रेडिंग अर्थात घोड़ों की बिक्री, वह भी लोकतंत्र पर धब्बा है। दल बदल मन बदल न हो जाए। जनता यह सोचे कि जिन पर पार्टी के नेताओं को ही विश्वास नहीं उन पर जनता आखिर क्यों विश्वास करे। अभी तक तो वह चुनावी खर्च पर भी नियंत्रण नहीं कर सका। चालीस करोड़ उड़ाने वाले चालीस लाख के आंकड़े आयोग को दे देते हैं।