भरत झुनझुनवाला –
वर्तमान में अर्थव्यवस्था सुचारु रूप से चल रही दिखती है। जीएसटी की वसूली 1,30,000 करोड़ रुपये प्रति माह के नजदीक पहुंच गई है जो कि आज तक का अधिकतम स्तर है। कोविड के ओमीक्रोन वेरिएंट के आने के बावजूद शेयर बाजार का सेंसेक्स 5,500 से 6,000 के स्तर पर बना हुआ है। रुपये का मूल्य 70 से 75 रुपए प्रति डॉलर पर बीते कई वर्षों से स्थिर टिका हुआ है। तमाम वैश्विक संस्थाओं के आकलन के अनुसार, भारत विश्व की सबसे तेज बढऩे वाली व्यवस्था बन चुकी है। इन सब उपलब्धियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेरोजगारी को एक विशेष चुनौती बताया है। तमाम आकलन भी बताते हैं कि वर्तमान में देश की जनता द्वारा की जा रही खपत कोविड-पूर्व के स्तर से भी नीचे है। यानी जीएसटी की वसूली 1,30,000 करोड़ रुपये प्रति माह के स्तर पर पहुंचने और अर्थव्यवस्था के सुचारु रूप से चलता दिखने के बावजूद आम आदमी की खपत सपाट है और रोजगार नदारद हैं। इस समस्या की जड़ें नीति आयोग के चिंतन में निहित हैं।
वर्ष 2018 में नीति आयोग ने देश की 75वीं वर्षगांठ के लिए बनाए गए रोड मैप में कहा था कि औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देना होगा और श्रम-सघन रोजगार को भी बढ़ावा देना होगा। नीति आयोग इन दोनों उद्देश्यों को एक साथ बढ़ावा देना चाहता है। आयोग समझता है कि यह दोनों उद्देश्य एक साथ मिलकर चल सकते हैं जैसे गाड़ी के दो चक्के मिल-जुलकर एक साथ चलते हैं। लेकिन वास्तव में इन दोनों उद्देश्यों के बीच में अंतर्विरोध है जैसे गाड़ी का एक चक्का आगे और दूसरा चक्का पीछे की तरफ चले तो गाड़ी डगमग हो जाती है। इसीलिए वर्तमान में रोजगार की गाड़ी डगमग हो चली है जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है।
औपचारिक रोजगार और श्रम-सघन उद्योग के बीच पहला अंतर्विरोध श्रम की लागत का है। जैसे मान लीजिए नुक्कड़ पर मोमो बेचने वाले अनौपचारिक कर्मियों को हम औपचारिक छत्रछाया के नीचे ले आते हैं। अब इनका पंजीकरण होगा। पंजीकरण के बाद इन्हें अपने द्वारा बेचे गए मोमो का वजन नियमानुसार प्रमाणित करना होगा। इनके कार्य पर स्वास्थ्य निरीक्षक की नजर रहेगी। इन्हें अपनी दुकान को खोलने व बंद करने के समय निर्धारित करने होंगे। इन्हें सही क्वालिटी की प्लेट लगानी होगी। अपने सहायकों को दिए गए वेतन का प्रोविडेंट फंड काटना होगा और उन्हें न्यूनतम वेतन देना होगा। बैंक में जाकर प्रोविडेंट फंड जमा कराने में इनका समय लग जायेगा। सरकारी निरीक्षक महोदय को मुफ्त मोमो भी देने होंगे। इन तमाम कार्यों से इनके द्वारा बनाए गए मोमो की लागत बढ़ जाएगी। आज वर्तमान में यदि ये 7 रुपये में मोमो बेचते हैं जो औपचारिक रोजगारी बनने के बाद इनके द्वारा उत्पादित मोमो का मूल्य बढ़कर 10 रुपये हो जाएगा। इनके मोमो का मूल्य बढ़ जाने से इनकी जो कम दाम में बेचने की विशेषता है, वह समाप्त हो जाएगी। खरीदार 7 रुपये में नुक्कड़ पर मोमो खरीदने के स्थान पर 10 रुपये में मॉल में मोमो खरीदेगा क्योंकि नुक्कड़ पर भी मोमो का दाम अब मॉल की तरह 10 रुपये हो जाएगा। श्रम-सघन उद्योग की बलि औपचारिक रोजगार की वेदी पर चढ़ा दी जायेगी। दोनों उद्देश्य साथ-साथ नहीं चलेंगे।
औपचारिक उत्पादन में दूसरा संकट ऑटोमेटिक मशीनों का है। मॉल में मोमो बेचने वाले औपचारिक विक्रेता द्वारा डिश वॉशर लगाया जाएगा और ऑटोमेटिक ओवन होगा, जिसमें बिजली की खपत कम होगी। इन ऑटोमेटिक मशीनों के कारण मोमो के औपचारिक उत्पादन में रोजगार की संख्या कम होगी। इसलिए औपचारिक रोजगार के चलते श्रम-सघन नहीं बल्कि श्रम -विघन रोजगार उत्पन्न होंगे। रोजगार की संख्या कम होगी।
औपचारिक रोजगार में तीसरा संकट वित्तीय औपचारिकता यानी नोटबंदी और जीएसटी का है। नोटबंदी के बाद वर्ष 2017 में एक ओला के ड्राइवर से चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि वे 35 वर्षों से चार महिलाओं को रोजगार दे रहे थे। उनसे घर पर कपड़ों में कसीदा करा रहे थे। नोटबंदी के बाद उनके क्रेताओं ने उन्हें नकद में पेमेंट करना बंद कर दिया। उनके पास व्यवस्था नहीं थी कि वे बैंक के माध्यम से कपड़े का पेमेंट ले सकें। यह भी कहा कि नकद माल खरीदने वाले ही नहीं रहे। अब बड़ी दुकानों में डेबिट कार्ड के पेमेंट से ही कपड़े खरीदे जा रहे हैं। उनका बाजार समाप्त हो गया। उन्होंने चारों महिलाओं को मुअत्तल कर दिया और स्वयं जीविका चलने के लिए ओला के ड्राइवर का काम शुरू कर दिया। लगभग यही स्थिति जीएसटी की है जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों को तमाम कानूनी पेचों से जूझना पड़ रहा है, जिसके कारण उनका धंधा कम हो रहा है। यह बात तमाम रपटों में दिखाई पड़ती है।
इन तमाम कारणों से औपचारिक और श्रम-सघन रोजगार में सीधा अंतर्विरोध है। औपचारिक रोजगार के चलते श्रम-सघन उत्पादन का मूल्य बढ़ता है और ऑटोमेटिक मशीनों के उपयोग से श्रम का उपयोग घटता है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण पुन: रोजगार घटता है। लेकिन नीति आयोग इस अंतर्विरोध को नहीं समझता अथवा नहीं समझना चाहता है इसलिए अनायास ही औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देने में नीति आयोग ने देश में रोजगार ही समाप्त कर दिए हैं। न्यून स्तर के अनौपचारिक जीवन के स्थान पर नीति आयोग ने औपचारिक मृत्यु को देशवासियों के पल्ले में डाल दिया है, जिसके कारण प्रधानमंत्री ने कहा है कि रोजगार हमारे सामने प्रमुख चुनौती है।
संभवत: नीति आयोग भारत को विकसित देशों की तर्ज पर औपचारिक श्रम की तरफ धकेलना चाहता है। लेकिन आयोग इस बात को भूल रहा है कि वर्तमान में पश्चिमी देश भी अनौपचारिक रोजगार की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। इसे वहां ‘गिगÓ रोजगार कहा जाता है जैसे श्रमिक घर में 3 घंटे बैठकर डेटा एंट्री इत्यादि करते हैं। इन गिग श्रमिकों को निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम वेतन दिए जाते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपने देश में नुक्कड़ पर मोमो विक्रेता को न्यूनतम वेतन से कम आय होती है। इसलिए हमें विकसित देशों के मोह को छोडऩा चाहिए। उनकी अंदरूनी रोजगार की परिस्थिति को समझना चाहिए। अपने देश में अनौपचारिक रोजगार को बढऩे देना चाहिए, नुक्कड़ के मोमो बेचने वाले को सम्मान देना चाहिए कि वह स्वरोजगार कर रहा है और सरकार पर मनरेगा का बोझ नहीं डाल रहा है। औपचारिक मृत्यु की तुलना में न्यून स्तर का अनौपचारिक जीवन ही उत्तम है। वर्तमान में अर्थव्यवस्था ऊपर से सुचारु रूप से चल रही दिखती है। अन्दर गड़बड़ है।