States cannot file petitions against decisions of President-GovernorCentre's argument

नई दिल्ली ,28 अगस्त (Final Justice Digital News Desk/एजेंसी)। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट किया कि राज्य सरकारें विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों के खिलाफ मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का दावा करते हुए सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर नहीं कर सकतीं।

केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह बात चीफ जस्टिस (सीजेआई) बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ के सामने कही। संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर भी शामिल थे।

मेहता ने कहा कि राष्ट्रपति इस बात पर सुप्रीम कोर्ट की राय लेना चाहती हैं कि क्या राज्य सरकारें संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत ऐसी याचिकाएं दायर कर सकती हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति यह भी जानना चाहती हैं कि संविधान के अनुच्छेद 361 का दायरा क्या है। यह अनुच्छेद कहता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने अधिकारों और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे।

राष्ट्रपति और राज्यपाल के विधेयकों पर फैसला लेने के अधिकार क्षेत्र से जुड़े प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि इस रेफेरेंस के जरिए राष्ट्रपति दो सवालों पर कोर्ट की राय जानना चाहती है। मेहता ने संविधान पीठ को बताया कि इन सवालों पर पहले भी चर्चा हुई है।

लेकिन राष्ट्रपति का मत है कि अदालत की स्पष्ट राय जरूरी है, क्योंकि भविष्य में ऐसा मामला फिर उठ सकता है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत राज्य सरकार की ओर से राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती।

न तो कोर्ट ऐसे मामलों में कोई निर्देश दे सकता है और न ही इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। उन्होंने आगे कहा, अनुच्छेद 32 का उपयोग तब किया जाता है, जब मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। लेकिन सांविधानिक ढांचे में राज्य सरकार खुद मौलिक अधिकार नहीं रखती।

राज्य सरकार की भूमिका यह है कि वह अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करे। सॉलिसिटर जनरल ने आठ अप्रैल के उस फैसले का भी जिक्र किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्यपाल समयसीमा के भीतर विधेयकों पर फैसला नहीं करते तो राज्य सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं।

राज्यपाल का छह महीने तक विधेयक लंबित रखना सही नहीं: सीजेआई

इस पर सीजेआई गवई ने कहा कि वह आठ अप्रैल के दो जजों के फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, लेकिन यह भी कहा कि राज्यपाल का किसी विधेयक को छह महीने तक लंबित रखना सही नहीं है। मेहता ने जवाब में कहा कि अगर एक सांविधानिक संस्था अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती, तो इसका मतलब यह नहीं कि कोर्ट दूसरी सांविधानिक संस्था को आदेश दे।

इस पर सीजेआई ने कहा, हां, हम समझ रहे हैं कि आप क्या कह रहे हैं। लेकिन अगर यह अदालत ही किसी मामले को 10 साल तक नहीं सुलझाए, तो क्या राष्ट्रपति को कोई आदेश देने का हक होगा? सुनवाई अभी जारी है। 26 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया था कि अगर कोई राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक फैसला नहीं लेता तो क्या अदालत के पास कोई उपाय नहीं रहेगा?

क्या राज्यपाल की स्वतंत्र शक्ति के चलते बजट जैसे जरूरी विधेयक भी अटक सकते हैं? शीर्ष कोर्ट ने यह सवाल तब उठाया जब कुछ भाजपा शासित राज्यों ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला लेने में पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। इन राज्यों ने यह भी कहा कि कोर्ट हर समस्या का हल नहीं हो सकती।

सुप्रीम कोर्ट अभी राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए उस सांविधानिक संदर्भ पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें पूछा गया है कि क्या अदालत राज्यपाल और राष्ट्रपति को यह निर्देश दे सकती है कि वे विधानसभा से पारित हुए विधेयकों पर तय समयसीमा में निर्णय लें? मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी कि क्या अदालत राष्ट्रपति को निर्देश दे सकती है कि वह राज्य विधानसभा से आए विधेयकों पर कब और कैसे फैसला लें।

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