पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद अगर कांग्रेस के अंदर से असंतोष के स्वर उठने शुरू हुए तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। यह जरूर पूछा जा सकता है कि ये स्वर कितने मजबूत हैं और पार्टी के अंदर सुधार की प्रक्रिया को किसी तार्किक परिणति तक ले जा सकते हैं या नहीं। इसमें दो राय नहीं कि ये चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए करारा झटका हैं। पांच राज्यों की कुल 690 विधानसभा सीटों पर हुए हुए चुनावों में कांग्रेस बमुश्किल 55 सीटें जीत पाई। यूपी में 403 सीटों पर लड़कर वह महज दो सीटें हासिल कर सकी। पंजाब में आम आदमी पार्टी की आंधी के सामने वह टिक नहीं पाई। उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर कहीं से भी ऐसी कोई खबर नहीं आई, जिससे थोड़ी बहुत भी तसल्ली मिल पाती। इसके बाद जी-23 के एक प्रमुख सदस्य गुलाम नबी आजाद ने कहा कि वह पार्टी को इस तरह मरते नहीं देख सकते। जी-23 के ही एक और अहम सदस्य शशि थरूर ने भी कहा कि अगर पार्टी कामयाब होना चाहती है तो बदलाव अनिवार्य हैं। ध्यान रहे जी-23 नाम तब सामने आया, जब कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने अगस्त 2020 में पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को संगठनात्मक सुधार का सुझाव देते हुए पत्र लिखा था। हालांकि पार्टी नेतृत्व ने इनके प्रमुख सुझावों पर सहमति जताते हुए संगठनात्मक चुनाव का इरादा भी घोषित किया था, लेकिन कोरोना के कारण उन पर अमल नहीं हो सका।बहरहाल, विचार-विमर्श को लेकर पार्टी नेतृत्व ने भी तैयारी दिखाई है। सोनिया गांधी ने चुनाव परिणामों पर विचार के लिए जल्द ही पार्टी कार्यसमिति की बैठक बुलाने की बात कही है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि विचार-विमर्श के नाम पर क्या होने वाला है और पार्टी के अंदर किस हद तक बदलाव स्वीकार किए जाने वाले हैं। क्या पार्टी को गांधी परिवार की अगुआई से मुक्ति मिलने वाली है? हालांकि गांधी परिवार से बाहर के किसी शख्स को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने भर से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि पार्टी में गांधी परिवार का प्रभाव समाप्त हो जाएगा। पहले भी कई बार पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति के हाथों में गया है, लेकिन पार्टी इस परिवार के आभामंडल से बाहर नहीं निकल पाई। फिर यह बात भी है कि अच्छा हो या बुरा, पर पिछले काफी समय से यही परिवार पार्टी की मुख्य प्राण शक्ति भी बना हुआ है। ऐसे में पार्टी और गांधी परिवार, संकट दोनों के सामने है। वे जिन मूल्यों की भी बात करें, उन्हें बचाने की उनकी कवायद का कोई मतलब तभी बनता है, जब वे राजनीति में प्रासंगिक बने रहें। और राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है। अगर देश की सबसे पुरानी पार्टी को इतिहास में दफन हो जाने से बचना है तो अपना कायाकल्प करना ही होगा।