Machinery needed to win electionsMachinery needed to win elections

कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं..

अजीत द्विवेदी – कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं, बल्कि रणनीतिकार लड़ाएंगे और मुकाबला रैलियों, रोड शो में नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर लड़ा जाएगा तो पार्टियों के नेता कहते थे कि भारत कोई अमेरिका नहीं है।

भाजपा के पास एक शानदार मशीनरी है, जिसके दम पर उसने कांग्रेस से उसकी 70 साल की उपलब्धियां छीन ली हैं।भाजपा की यह मशीनरी सिर्फ चुनाव के समय काम नहीं करती है, बल्कि 365 दिन और 24 घंटे काम करती है।पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने भारतीय राजनीति की एक अहम जरूरत को रेखांकित किया है। वह जरूरत है चुनाव लड़ाने और जिताने वाली मशीनरी की। कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इसलिए चार राज्यों में चुनाव जीती क्योंकि उसके पास चुनाव लड़ाने वाली आधुनिक मशीनरी है, कांग्रेस को भी ऐसी मशीनरी तैयार करनी होगी।

सवाल है कि इस मशीनरी में क्या क्या चीजें हैं, जो चुनाव लडऩे और सकारात्मक नतीजे हासिल करने के लिए जरूरी हैं? और क्या आम आदमी पार्टी जैसी नई बनी पार्टी ने भी वह मशीनरी विकसित कर ली है, जिसके दम पर उसने पंजाब का चुनाव जीता?राहुल गांधी ने जिस आधुनिक मशीनरी का जिक्र किया उसका एक हिस्सा नए सॉफ्टवेयर और अल्गोरिदम आधारित मशीनरी है, जिसके बिना इन दिनों चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है। चुनाव रणनीतिकार, सर्वेक्षण करके फीडबैक जुटाने वाली टीम, उस फीडबैक के आधार पर नैरेटिव गढऩे वाली टीम, सोशल मीडिया में इस नैरेटिव को वायरल करने और उस पर ओपिनियन बनवाने वाली टीम, अपने प्रतिद्वंद्वियों की गलतियां निकालने और उस पर ट्रोल कराने वाली टीम, ये सब इस आधुनिक मशीनरी का हिस्सा हैं। भाजपा के पास इसकी एक शानदार मशीनरी है, जिसके दम पर उसने कांग्रेस से उसकी 70 साल की उपलब्धियां छीन ली हैं और तमाम झूठी-सच्ची असफलताओं के लिए उसे जिम्मेदार बनाया है। इसी मशीनरी के दम पर भाजपा ने गांधी परिवार को कांग्रेस और देश के लिए एक लायबिलिटी साबित किया है।

भाजपा की यह मशीनरी सिर्फ चुनाव के समय काम नहीं करती है, बल्कि 365 दिन और 24 घंटे काम करती है।भाजपा के उलट कांग्रेस अब भी पारंपरिक तरीके से चुनाव लड़ती है। उम्मीदवार तय करने से लेकर प्रचार सामग्री तैयार करने और प्रचार करने तक का कांग्रेस का तरीका पारंपरिक है। सोशल मीडिया में भी कांग्रेस की जो उपस्थिति दिखती है वह कांग्रेस की वजह से कम और भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकार का विरोध करने वाले सोशल मीडिया के स्वंयभू योद्धाओं की वजह से ज्यादा है। इसलिए यह ज्यादा असरदार नहीं है। यह बुनियादी रूप से वैचारिक है, इसमें कोई नियोजन नहीं है और कोई तालमेल नहीं है। इनकी दूसरी सीमा यह है कि ये किसी घटना के हो जाने के बाद उस पर प्रतिक्रिया देते हैं। किसी एजेंडे के तहत कोई विमर्श इनके दम पर खड़ा नहीं किया जा सकता है। उसके लिए पार्टियों के पास अपना पूरा तंत्र होना चाहिए।अगर पांच राज्यों में हुए चुनाव और उसके नतीजे देखें तो जीतने वाली दोनों पार्टियों- भाजपा और आप को देख कर साफ लगेगा कि चुनाव प्रबंधन, रणनीतिकार और मशीनरी की कितनी जरूरत है।

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस इन तीन चीजों की कमी के चलते हारे। भाजपा की राज्य सरकारों के खिलाफ लोगों में गुस्सा था, सरकार के कामकाज से निराशा थी और बदलाव की चाहत भी थी फिर भी सपा और कांग्रेस इस हालात का फायदा नहीं उठा पाए तो उसका कारण यह था कि इन पार्टियों के साथ रियल टाइम में फीडबैक जुटाने, उस पर प्रतिक्रिया देने, आकर्षक नारे गढऩे, झूठे-सच्चे नैरेटिव तैयार करने वाली टीम नहीं थी। मिसाल के तौर पर पंजाब का चुनाव देखें। जिस दिन कांग्रेस पार्टी ने दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया उस दिन से आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया में उनको नकली दलित बताना शुरू किया। उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और अरविंद केजरीवाल ने पता नहीं अपने किस सर्वेक्षण के आधार पर कहना शुरू किया कि चन्नी दोनों सीटों- चमकौर साहिब और भदौर से चुनाव हार रहे हैं।मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के घोषित दावेदार दोनों सीटों से चुनाव हार रहे हैं, इसका ऐसा प्रचार आम आदमी पार्टी ने किया कि सचमुच कांग्रेस के नेता चुनाव से पहले ही मान लिए वे हार रहे हैं।

यह मनोवैज्ञानिक लड़ाई है, जो टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो या सोशल मीडिया के स्पेस में लड़ी जाती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह और भी जरूरी इसलिए है क्योंकि चुनाव कई चरण में होते हैं और हर चरण के मतदान के बाद चुनाव बदलता जाता है। अगर किसी पार्टी के पास अच्छा चुनाव रणनीतिकार हो और अच्छी मशीनरी हो तो वह हर चरण के बाद बदलते चुनाव को अपने पक्ष में मोड़ सकता है। सोचें, उत्तर प्रदेश के जाट और मुस्लिम बहुल पश्चिमी हिस्से में पहले चरण की 58 सीटों में से 48 सीटें भाजपा को मिली हैं, जबकि माना जा रहा था कि किसान आंदोलन की वजह से जाट बुरी तरह से नाराज हैं और भाजपा को वोट नहीं देंगे।

लेकिन क्या यह फीडबैक सपा प्रमुख अखिलेश यादव को मिली थी? अगर मिली तो उन्होंने दूसरे और तीसरे चरण के लिए अपनी रणनीति में क्या बदलाव किया?कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं, बल्कि रणनीतिकार लड़ाएंगे और मुकाबला रैलियों, रोड शो में नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर लड़ा जाएगा तो पार्टियों के नेता कहते थे कि भारत कोई अमेरिका नहीं है। ध्यान रहे अमेरिका का 2016 का राष्ट्रपति चुनाव पूरी तरह से ट्विटर पर लड़ा गया था। अब भारत में यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत कोई अमेरिका नहीं है। अब यहां भी चुनाव स्मार्टफोन और सोशल मीडिया में लड़ा जा रहा है। उसी के जरिए धारणा बनाई और बदली जा रही है। नेताओं और मुद्दों को लोगों के मानस में स्थापित किया जा रहा है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि तकनीक और मशीनरी के इस दौर में कार्यकर्ता और संगठन की जरूरत खत्म हो गई है। लेकिन अब उनकी भूमिका बदल गई है। वे इस तकनीक या मशीनरी का सहायक पुर्जा है, जिनका काम पार्टियों या नेताओं के चुनाव रणनीतिकारों द्वारा गढ़े गए नैरेटिव और नारे को आम लोगों तक पहुंचाना है। वह भी फिजिकल तरीके से कम और इलेक्ट्रोनिक तरीके से ज्यादा। जितने ज्यादा लोगों तक पहुंच बनेगी और उस पहुंच में जितनी निरंतरता रहेगी, उतना फायदा होगा। प्रशांत किशोर और उनकी कंपनी इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी यानी आईपैक यहीं काम करती है। पोलिटिकल एक्शन कमेटी यानी पैक्स पूरी तरह से अमेरिकी राजनीति से लिया गया विचार है। वहां पार्टियों के पैक्स और सुपर पैक्स होते हैं, जो सारे चुनावी मुद्दे, नारे और नैरेटिव तय करते हैं और उन्हें लोगों तक पहुंचाने के उपाय करते हैं। यह सब लोगों की राय के आधार पर किया जाता है। भारत के लिए यह नया विचार है और इसलिए सब इस विचार के मोहपाश में बंधे हैं। ध्यान रहे भारत में जैसे ही कोई नया विचार आता है या नई तकनीक आती है, उसका इस्तेमाल करने वाला सबको पराजित कर देता है। भारतीय राजनीति का वहीं दौर अभी चल रहा है, जो इस दौर के साथ नहीं चलेगा वह पिछड़ जाएगा।

********************************************************

इसे भी पढ़े:*मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म के सवाल पर अदालत में..

इसे भी पढ़े:उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान

इसे भी पढ़े:चुनावी मुद्दा नहीं बनता नदियों का जीना-मरना

इसे भी पढ़े:रूस पर प्रतिबंधों का मकडज़ाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *