अनूप भटनागर –
पंजाब, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सहित आठ गैर भाजपा सरकारों द्वारा अपने राज्यों में सीबीआई को जांच की अनुमति वापस लिये जाने से एक नया विवाद शुरू हो रहा है। सीबीआई को दी गयी सहमति वापस लिये जाने का मामला अब उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाया गया है। सवाल उठ रहा है कि क्या भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और धनशोधन के मामलों में जानबूझकर बाधा डालकर संदिग्ध आरोपियों को बचाने के प्रयास हो रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वैचारिक मतभेद और असहमति होना स्वाभाविक है। शीर्ष अदालत भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति को प्रेशर वाल्व मानती है। लेकिन इसकी आड़ में भ्रष्टाचार, सुनियोजित अपराध और दूसरे अंतर्राज्यीय अपराधों की जांच करने वाली केंद्रीय एजेंसियों को राज्यों द्वारा सामान्य प्रक्रिया में दी गयी संस्तुति वापस लेना गंभीर सवाल पैदा करता है।
आठ राज्यों की सरकारों का ऐसा रवैया अनायास इस आशंका को जन्म देता है कि शायद ये ऐसे अपराधों में संलिप्त आरोपियों को संरक्षण देने का प्रयास कर रही हैं। इन आठ राज्यों ने डीएसपीई कानून की धारा छह के तहत दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (सीबीआई) को पहले दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है। इनमें पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल और मिजोरम शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद दो मई से राज्य में हुई हिंसा की घटनाओं की जांच का काम केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपने के उच्च न्यायालय के निर्णय को शीर्ष अदालत में चुनौती देने का राज्य सरकार का फैसला और सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत की जांच के लिए मुंबई गए सीबीआई के जांच दल के साथ कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर हुआ व्यवहार इस तरह की आशंका को पुख्ता करता है।
इन राज्यों द्वारा केन्द्र के साथ वैचारिक मतभेदों की वजह से डीएसपीई कानून की धारा छह के तहत केन्द्रीय जांच ब्यूरो को अपने यहां जांच के लिए पहले दी गई सामान्य सहमति वापस लेने का नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार के 150 से अधिक मामलों की जांच अधर में लटकी हुई है। उच्चतम न्यायालय को उपलब्ध कराई जानकारी के अनुसार इन आठ राज्यों को 2018 से जून, 2021 के दौरान 150 से भी ज्यादा अनुरोध उनकी विशिष्ट सहमति के लिए भेजे गए लेकिन उसे अभी तक सहमति नहीं मिली है।
राज्यों के इस रवैये से उच्चतम न्यायालय भी चिंतित है। न्यायालय ने हाल ही में इस तथ्य का जिक्र करते हुए कहा कि ये अनुरोध आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति अर्जित करने, विदेशी मुद्रा को नुकसान, बैंकों के साथ धोखाधड़ी और हेराफेरी करने जैसे आरोपों की जांच से संबंधित हैं।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश की पीठ ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि यह स्थिति वांछनीय नहीं है। भ्रष्टाचार और धनशोधन के मामलों में हमेशा ही सख्त रुख अपनाने वाली शीर्ष अदालत ने कहा कि इनमें 78 प्रतिशत मामले मुख्य रूप से देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले बैंक धोखाधड़ी के बड़े मामलों से संबंधित हैं।
पीठ की इस तरह की सख्त टिप्पणी के मद्देनजर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार के इस तरह के गंभीर मामलों में सीबीआई को अपने राज्य में जांच की अनुमति नहीं देकर राज्य सरकारें किसका हित साध रही हैं। यह भी संयोग ही है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों को सहमति नहीं देने वाली राज्य सरकारें गैर भाजपाई हैं। मतलब देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले अपराधों की जांच और दोषियों को कानून के शिकंजे में लाने के प्रयासों को भी राजनीतिक नफे-नुकसान की तराजू पर तोला जा रहा है।
राजनीतिक लाभ-हानि को ध्यान में रखते हुए आपराधिक मामलों की जांच करने के लिए सहमति प्रदान नहीं करने का नतीजा यह होता है कि इनकी जांच लंबे समय तक अधर में ही लटकी रहती है। जांच पूरी होने में विलंब की वजह से ऐसे मामले अदालत में नहीं पहुंच पाते और अगर अदालत में पहुंच जाएं तो किसी न किसी आधार पर कई मामलों में न्यायिक रोक लग जाती है।
यह सारे तथ्य केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यशैली और उसके मुकदमों में दोष सिद्धि की दर के बारे में केन्द्रीय जांच ब्यूरो को हलफनामा दाखिल करने के शीर्ष अदालत के आदेश के जवाब में सामने आयी। जांच ब्यूरो ने अपने हलफनामे में दावा किया कि उससे संबंधित 13,200 से ज्यादा मामले देश की विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। इनमें शीर्ष अदालत में लंबित 706 मामले भी शामिल हैं। राज्य सरकारों के रवैये की वजह से सीबीआई की जांच अधर में लटके होने और विभिन्न स्तरों पर अदालतों में लंबित मामलों के बारे में अब शीर्ष अदालत को ही कोई न कोई तर्कसंगत समाधान निकालना होगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि केन्द्र और राज्यों के बीच सीबीआई मामलों की जांच विभिन्न कारणों से लंबे समय से अधर में लटकी होने का विवाद जल्द सुलझा लिया जायेगा। यही नहीं, अदालतों में लंबित मामलों के शीघ्र निस्तारण के बारे में शीर्ष अदालत केंद्रीय जांच एजेंसियों के साथ ही राज्य सरकारों को भी उचित आदेश देगी।