Ideological credibility will increase credibilityIdeological credibility will increase credibility

क्षमा शर्मा –
लखनऊ में प्रेस कॉनफ्रेंस करके कांग्रेस की नेता, प्रियंका गांधी ने कहा कि अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव में, चालीस प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए जाएंगे। बैक ग्राउंड में लिखा था-लड़की हूं, लड़ सकती हूं। सुनने में नारा बहुत आकर्षित करता है। लड़कियों को संघर्ष और अपने अधिकारों के लिए लडऩे की प्रेरणा भी दे सकता है। जब से देश में शिक्षित, नौकरीपेशा मध्य वर्ग की महिलाओं की संख्या बढ़ी है, वे बड़ी संख्या में वोट देने लगी हैं। उनकी राय का मायने भी समझा जाने लगा है, तब से जैसे हर राजनीतिक दल उन्हें अपने पाले में खींचना चाहता है।
अतीत में जो लोग 33 प्रतिशत महिला रिजर्वेशन बिल का संसद में विरोध कर चुके हैं, कह चुके हैं कि अगर ऐसा हुआ तो परकटी आ जाएंगी, वे इस बिल में विभिन्न धर्मों और जातियों की महिलाओं को अलग से प्रतिनिधित्व देने की मांग कर चुके हैं, वे महिलाओं को भी जाति और धर्म के चश्मे से ही देखते हैं। जबकि अनुभव कहता है कि जिस तरह गरीब का कोई जाति–धर्म नहीं होता, महिलाओं का भी नहीं होता। वे हर जाति–धर्म में सताई जाती हैं। लेकिन प्रियंका गांधी की इस घोषणा के बाद, ऐसे ही एक दल के प्रवक्ता ने टीवी पर कहा कि वे तो हमेशा से ही इस बिल का समर्थन कर रहे थे, भाजपा और कांग्रेस ने ही इसे पास नहीं होने दिया।
इन दिनों अपना ही बोला हुआ आज का सच, कल का झूठ हो सकता है। जिसने कल जो बात कही थी, आज वही उसे झुठला सकता है। इन दिनों हर बात पर महिलाओं का नाम जपने वाले महिलाओं के ये नए हितू, सचमुच उनके लिए क्या करेंगे। या कि चुनाव के बाद सब भूल जाएंगे। आने वाले दिनों में जब कांग्रेस में टिकटों का बंटवारा होगा तो हो सकता है कि इसी दल के पुरुष अपने-अपने घर की महिलाओं के लिए टिकट की मांग करें, तब उनसे कैसे निपटा जाएगा। यदि उन्हें टिकट दिया गया तो सत्ता पुरुष से खिसक कर महिला के हाथ में आ जाएगी, मगर परिवार के पास ही रहेगी। क्योंकि प्रियंका गांधी ने कहा भी है कि जिन महिलाओं को लोग जानते होंगे, जो अपने क्षेत्र में लोकप्रिय होंगी, पार्टी का टिकट उन्हें ही मिलेगा।
हम जानते ही हैं कि एक साधारण औरत को लोकप्रिय होने के कितने मौके मिलते हैं। अक्सर ही लोकप्रियता की सारी ताकत साधन सम्पन्नों के पास ही पहुंचती है। फिर मान लीजिए यदि तमाम पुराने नेताओं के परिवारों की महिलाओं को टिकट नहीं मिला, तो क्या वे प्रियंका के खिलाफ मोर्चा नहीं खोल देंगे। जिसे टिकट नहीं मिलता है, वह फौरन पुराने दल को छोड़, टिकट मिलने की आस में नए दल में चला जाता है।
आखिर प्रियंका भी ऐसे ही परिवार से आती हैं। क्या उनकी जगह कांग्रेस की कोई साधारण महिला ले सकती है। उसे यह पद मिल सकता है। इसके अलावा एक दिलचस्प बात यह भी है कि जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा था, तो अध्यक्ष उनके सुपुत्र राहुल गांधी को ही बनाया गया था। चलिए तब तो प्रियंका राजनीति में इतनी एक्टिव नहीं थीं। मगर पिछले दिनों कांग्रेस की जो मीटिंग हुई, उसमें कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से बहुत से वरिष्ठ नेताओं ने राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने की मांग की। आखिर उन्होंने प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की मांग क्यों नहीं की। वह भी तब, जब मां सोनिया गांधी यानी कि एक महिला ही से यह मांग की जानी थी। यानी कि परिवार या दल की सत्ता में जब चुनो, तब पुरुष को ही चुनो। प्रियंका की यह प्रतिज्ञा अच्छी है कि वे लड़कियों को एमपावर्ड करना चाहती हैं, तो पहले यह बदलाव घर से ही शुरू क्यों नहीं किया जाता। उन्हें कुछ संकोच हो तो राहुल गांधी या सोनिया गांधी खुद उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का निर्णय ले सकते हैं। या कि लड़कियों के प्रति इतनी संवेदना सिर्फ चुनाव जीतने का स्टंट भर है।
वैसे भी पूरे देश में लड़कियों के प्रति तरह-तरह के अपराध होते हैं। एनसीआरबी के आंकड़े इसकी गवाही भी दे सकते हैं। मगर नेताओं को उन्हें उठाने की याद वहीं आती है, जहां विपक्षियों की सरकार हो और चुनाव होने वाले हों। इस तरह की रणनीति बनाने में कोई भी दल कम नहीं है। प्रेस कानफ्रेंस में जब पत्रकारों ने प्रियंका से पूछा कि अन्य जिन राज्यों में चुनाव होंगे, क्या वहां भी कांग्रेस यही नीति अपनाएगी, तो उन्होंने बहुत चतुराई से कहा कि वह उत्तर प्रदेश की इंचार्ज हैं। वहीं के बारे में बता सकती हैं।
कई बार यह भी लगता है कि सरकारें अपने कामों का ढोल पीटने के लिए अरबों रुपए खर्च करती हैं। अगर सचमुच जमीनी स्तर पर काम हों तो लोग खुद उनका ढोल पीटते हैं, चर्चा करते हैं। और ऐसे नेताओं को बारंबार चुनते हैं।
दरअसल नेता अपनी गद्दी सुरक्षित करने, सत्ता प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के नारे उछालते हैं, जो जनता के एक वर्ग को लुभाएं और वोटों से उनकी झोली भर दें। लेकिन मीडिया का बड़ा वर्ग इस स्ट्रेटेजी को ही सही मान, ले उड़ता है और कभी इसे गेम चेंजर कहता है, कभी मास्टर स्ट्रोक। अजीब-सी बात यह है कि जिसे मास्टर स्ट्रोक कहा जाता है, कई बार वही चुनाव हरवा देता है।
पिछले चुनावों में राहुल और अखिलेश ने मिलकर चुनाव लड़ा था । नारा था- लोगों को यह साथ पसंद है। उनके बारे में मीडिया में स्लोगन छाया हुआ था-यूपी के लड़के। इसे युवाओं को लुभाने का बहुत अच्छा नारा माना गया था। लड़कियों की बात यहां कहीं नहीं थी। हालांकि राहुल और अखिलेश युवा होने की उम्र कब की पार कर चुके थे। लेकिन इस तरह के नारे कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के कुछ काम नहीं आए थे। आने वाले चुनावों में देखना होगा कि जिसे प्रियंका का औरतों का दिल जीतने वाला नारा बताया जा रहा है, वह कितना कारगर होता है। औरतों को वह कितना लुभा पाती हैं।

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