This time the election road is not easyThis time the election road is not easy

*पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव लंबे समय तक याद रहेंगे

*चुनाव हर भारतीय की भागीदारी का उत्सव रहे हैं

*चुनाव प्रचार राजनीतिक दलों-प्रत्याशियों के लिए

किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं रहा

राजकुमार सिंह –
अभूतपूर्व कोरोना प्रतिबंधों के साये में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव लंबे समय तक याद रहेंगे। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनाव किसी लोक पर्व से कम नहीं रहे। धर्म-क्षेत्र विशेष के दायरे से परे चुनाव हर भारतीय की भागीदारी का उत्सव रहे हैं। इसलिए जन साधारण का उत्साह देखते ही बनता रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में तो चुनाव प्रचार किसी दीर्घकालीन मेले जैसा ही नजर आता था, पर इस बार सब कुछ बदला-बदला सा है। सभाओं में उपस्थिति की संख्या सीमित है तो घर-घर जन संपर्क का सिलसिला अरसे बाद लौटा है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के समय तेज रफ्तार से बढ़ते कोरोना केस, अब आंकड़ों में तो कम होते नजर आ रहे हैं। इसे साहस कहिए या दुस्साहस– तेजी से खुलते जहान के बीच लोगों में कोरोना से जान का डर भी कम होता नजर आ रहा है। सात चरणों में मतदान वाले उत्तर प्रदेश में पहले चरण में मतदान का अच्छा प्रतिशत भी यही बताता है। तमाम तरह के प्रतिबंधों के बीच चुनाव प्रचार राजनीतिक दलों-प्रत्याशियों के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं रहा। यह अलग बात है कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और अमर्यादित भाषा का चिर-परिचित खेल इस बीच भी बदस्तूर जारी है। शायद इसलिए भी कि ऐसा करने से असल मुद्दों से ध्यान हटाने में मदद मिलती है।
बेशक छोटे राज्यों उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा के लिए भी विधानसभा चुनाव समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन राज्यों की राजनीति अंतत: देश की राजनीति भी तय करती है। इसीलिए उत्तर प्रदेश और पंजाब सरीखे बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव की चर्चा कुछ ज्यादा है। उत्तर प्रदेश लोकसभा सदस्य संख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसीलिए माना जाता है कि देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से निकलता है। उत्तर प्रदेश ने ही देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिये हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को केंद्र में लगातार दूसरी बार सत्तारूढ़ करने में भी उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका रही है। इसलिए स्वाभाविक ही उत्तर प्रदेश में चुनाव से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ी हर गतिविधि पर देश ही नहीं, दुनिया की भी नजरें लगी हैं। पिछली बार 300 से भी ज्यादा सीटें जीत कर उत्तर प्रदेश में बनी योगी आदित्यनाथ सरकार को इस बार कड़ी चुनावी चुनौती मिल रही है—यह बात भाजपा नेता भी निजी बातचीत में स्वीकारते हैं। पिछली बार दो लड़कों (अखिलेश यादव-राहुल गांधी) की जोड़ी भाजपा का विजय रथ रोकने में नाकाम रही थी। इस बार अखिलेश यादव-जयंत चौधरी के रूप में दो लड़कों की नयी जोड़ी भाजपा से मुकाबिल है। बेशक इस सपा-रालोद गठबंधन में अन्य छोटे दल भी शामिल हैं, लेकिन भाजपाई रणनीतिकारों के पसीने ये दो लड़के ही छुड़ा रहे हैं। वजह भी साफ है : 10 फरवरी को पहले चरण में जिन 58 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ है, उनमें से भाजपा ने पिछली बार 53 सीटें जीती थीं। कारण था : 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद परंपरागत जाट-मुस्लिम समीकरण का टूट जाना। दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण से नलकूप सूख गया और साइकिल पंचर हो गयी–सिर्फ कमल खिला, और खूब खिला।
पहले चरण का मतदान हो चुका है। मतगणना तो 10 मार्च को होगी, लेकिन उससे पहले भी यह बात दावे से कही जा सकती है कि 2017 के चुनाव परिणामों की पुनरावृत्ति इन सीटों पर हरगिज नहीं होने जा रही। यह उत्तर प्रदेश की चुनावी चिंता का ही परिणाम था कि मजबूत प्रधानमंत्री की छवि वाले नरेंद्र मोदी देश से क्षमा याचना सहित तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने को बाध्य हुए, क्योंकि दिल्ली की दहलीज पर साल भर चले किसान आंदोलन में पंजाब और हरियाणा के बाद सबसे बड़ी और मुखर भागीदारी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ही थी। साल भर बाद तीन कृषि कानूनों की वापसी से भी भाजपा को वांछित राजनीतिक लाभ नहीं मिला—इसका संकेत चुनाव प्रचार के बीच भी जयंत चौधरी पर डोरे डालने तथा मतदाताओं को बार-बार दंगों की याद दिलाने से मिल जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ही 55 विधानसभा सीटों पर 14 फरवरी को मतदान होना है। कुल मिला कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ये 103 सीटें शेष पांच चरणों के मतदान की दिशा भी तय कर सकती हैं। अगर किसान आंदोलन से जाट-मुस्लिम विभाजन की खाई पटी है और सवालिया निशानों वाले अतीत के बावजूद अखिलेश, जयंत के साथ मिलकर दो लड़कों की छवि से निकल कर विश्वसनीय विकल्प का विश्वास मतदाताओं में जगाने में सफल रहे हैं तो तय मानिए कि उत्तर प्रदेश की सत्ता का सूर्य इस बार पश्चिम से ही उदय होगा। बेशक अंतिम परिणाम 10 मार्च को ही पता चलेंगे, लेकिन अगर इन 103 सीटों पर भाजपा आधी ही रह गयी तो उसके लिए 403 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 202 का आंकड़ा छू पाना आसान तो हरगिज नहीं होगा। हां, अंतिम तस्वीर उभरने में अहम भूमिका उस बसपा की रह सकती है, जिसे फिलहाल प्रेक्षक ज्यादा महत्व नहीं दे रहे। दलित वर्ग में जाटव मतदाता अभी भी मायावती के साथ एकजुट हैं। अगर बसपा परंपरागत रूप से मुस्लिम मतों में हिस्सा बंटाने में सफल रही तो उसका सीधा लाभ भाजपा को ही मिलेगा, जो जातिगत राजनीति की चुनौतियों को हिंदुत्व के नारे से नाकाम करने की जांची-परखी रणनीति पर चल रही है। संक्षिप्त में कहें तो अगर अखिलेश अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ मिल कर भाजपा के कमंडल से मंडल के बड़े हिस्से को निकाल पाने में सफल रहे तो लखनऊ ही नहीं, दिल्ली की राह भी भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले तक पंजाब की राजनीति मुख्यत: दो दलीय नहीं तो दो ध्रुवीय ही रही है। 2014 में चार लोकसभा सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी पंजाब की तीसरी बड़ी राजनीतिक धारा बनी तो 2017 के विधानसभा चुनाव में सत्ता की दावेदार भी बन गयी, पर अंतिम क्षणों में बाजी पलटी और कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो गयी। पिछले पांच सालों में पंजाब की राजनीति ने कई रंग बदले हैं। जिन कैप्टन अमरेंद्र सिंह को चेहरा बना कर पिछली बार कांग्रेस ने सत्ता हासिल की थी, उन्हें ही बेआबरू कर सत्ता से बेदखल कर दिया गया। कैप्टन अमरेंद्र की विदाई में निर्णायक भूमिका भाजपाई से कांग्रेसी बने जिन नवजोत सिंह सिद्धू ने निभायी थी, उनके हिस्से सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष पद ही आया और मुख्यमंत्री पद के लिए चरणजीत सिंह चन्नी की लॉटरी खुल गयी। सुनील जाखड़ या सुखजिंदर सिंह रंधावा को मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए सिद्धू भी चन्नी के नाम पर मान गये। शायद उन्हें उम्मीद रही कि नये चुनाव के बाद तो वह ही मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार होंगे, लेकिन सर्वाधिक प्रतिशत दलित मतदाताओं वाले पंजाब में कांग्रेस ने चन्नी को चुनावी ट्रंप कार्ड के रूप में इस्तेमाल करना चाहा तो सिद्धू के होश उड़ गये। अभी तक दबाव की राजनीति में सफल रहे सिद्धू ने इस बार मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के लिए कांग्रेस आलाकमान पर जो दबाव बनाया, वह उन पर ही भारी पड़ गया। चन्नी के मुख्यमंत्रित्व में चुनाव लड़ते हुए किसी अन्य को चेहरा घोषित करना आत्मघाती होगा—यह समझने में कांग्रेस आलाकमान को भी मुश्किल नहीं हुई। चेहरा घोषित किये बिना चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलने पर तो शायद सिद्धू के लिए संभावनाओं के द्वार खुले भी रहते, पर उतावलेपन में गुरु खुद तो गुड़ ही रह गये, जबकि चन्नी शक्कर बन गये।
विरोधी भी मानते हैं कि उठापटक के बावजूद कांग्रेस पंजाब में सत्ता की दावेदार है, पर उसका मुकाबला किससे होगा—इस पर प्रेक्षक भी एकमत नहीं हैं। दबाव में ही सही, आम आदमी पार्टी ने इस बार सांसद भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया है, पर पंजाब के मतदाता ऐसी छवि के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनायेंगे—यह देखना दिलचस्प होगा। जैसे-जैसे चुनाव प्रचार आगे बढ़ रहा है, शिरोमणि अकाली दल-बसपा गठबंधन भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहा है। भाजपा ने भी बागी कांग्रेसी कैप्टन अमरेंद्र सिंह और बागी अकाली सुखदेव सिंह ढींढसा के दलों के साथ गठबंधन कर चुनावी मुकाबले में चौथा कोण बनने की कोशिश की है। हत्या और बलात्कार सरीखे अपराधों में सजा काट रहे विवादास्पद डेरा प्रमुख राम रहीम को जेल से मिली फरलो को भी जानकार इसी रणनीति से जोड़ कर देख रहे हैं, लेकिन लगता नहीं कि त्रिशंकु विधानसभा बने बिना पंजाब के सत्ता समीकरणों में भाजपा के लिए कोई भूमिका बन पायेगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *