The electoral battle of Punjab narrowed on the facesThe electoral battle of Punjab narrowed on the faces

राजकुमार सिंह –
पंजाब में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान अभी दूर है, लेकिन मुफ्त-रेवडिय़ों की राजनीति से शुरू हुई चुनावी जंग तेजी से चेहरों तक सिमटती दिख रही है। प्रकाश सिंह बादल परिवार के वर्चस्व वाले शिरोमणि अकाली दल और उसके गठबंधन के चेहरे को लेकर कभी संदेह नहीं रहा। पिछले विधानसभा चुनाव तक बिना घोषणा के भी यह सभी को पता रहता था कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ही होंगे। 94 वर्ष की उम्र में प्रकाश सिंह बादल इस बार भी लंबी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव तो लड़ रहे हैं, लेकिन पिछले मुख्यमंत्रित्वकाल में ही शिरोमणि अकाली दल की कमान अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को सौंप चुकने के बाद इस बार सत्ता की बागडोर भी उन्हें सौंप उत्तराधिकार की राजनीतिक प्रक्रिया पूरी कर देना चाहते हैं। तीन दर्जन से भी ज्यादा सीटों पर असरदार भूमिका वाले हिंदू मतों के समर्थन के लिए भाजपा से गठबंधन की जरूरत प्रकाश सिंह बादल को भी पड़ती थी। फिर सुखबीर बादल को तो पंजाब की राजनीति में अपनी व्यापक स्वीकार्यता अभी साबित करना शेष है। इसीलिए भाजपा से अलगाव के बाद शिरोमणि अकाली दल, 25 साल लंबे अंतराल के बाद फिर बसपा से गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरा है।
यह पहेली व्यापक राजनीतिक-सामाजिक चिंतन-मनन की मांग करती है कि उत्तर भारत में दलितों की राजनीतिक अस्मिता की पहचान बन कर उभरी बसपा, देश में सर्वाधिक दलित आबादी (लगभग 32 प्रतिशत) पंजाब में होने के बावजूद, यहां अपनी बड़ी लकीर क्यों नहीं खींच पायी—जबकि उसके संस्थापक कांशीराम मूलत – यहीं के निवासी थे? बहरहाल अकाली-बसपा गठबंधन ने ऐलान किया है कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री तो सुखबीर बादल ही होंगे, लेकिन दलित और हिंदू समुदाय से एक-एक उपमुख्यमंत्री बनाया जायेगा। अब जबकि उतावले नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन अमरेंद्र सिंह को अपमानजनक ढंग से हटाते हुए दलित समुदाय से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री ही बना दिया है, यह देखना दिलचस्प होगा कि अकाली-बसपा गठबंधन का दलित उपमुख्यमंत्री का दांव चुनाव में कितना प्रभावी होगा। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह तथ्य बार-बार रेखांकित किया जा रहा है कि पंजाब में सर्वाधिक आबादी होने के बावजूद इससे पहले ज्ञानी जैल सिंह के रूप में सिर्फ एक बार ही दलित को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि जैल सिंह को मुख्यमंत्री बनाये जाने के वास्तविक कारण पंजाब की तत्कालीन, खासकर कांग्रेसी राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले बखूबी जानते-समझते हैं, लेकिन कांग्रेस आज चुनाव प्रचार में यह दावा तो कर ही सकती है कि राज्य में दोनों बार दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। हालांकि हर दांव के दोनों तरह के परिणाम निकल सकते हैं, लेकिन विडंबना देखिए कि कांग्रेस चुनाव प्रचार में दलित मुख्यमंत्री का अपना ट्रंप कार्ड ही खुल कर नहीं चल पा रही, क्योंकि चंद महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने को आतुर सिद्धू अब मुख्यमंत्री का चेहरा बनने को उतावले हैं।
दरअसल सिद्धू को यह अहसास ही नहीं था कि कैप्टन अमरेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटवाने में उन्हें इतनी जल्दी सफलता मिल जायेगी, वरना वह प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए आलाकमान पर इतना दबाव नहीं बनाते। अब सिद्धू को लगता है कि कैप्टन अमरेंद्र सिंह की बेआबरू विदाई की पटकथा तो उन्होंने लिखी; तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ समेत तमाम दिग्गजों को विरोधी भी बना लिया— पर फलस्वरूप मुख्यमंत्री का पद चन्नी की झोली में जा गिरा। न सिर्फ तब जा गिरा, बल्कि पंजाब के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण का चुनावी दबाव ऐसा है कि भविष्य में अवसर आने पर उसके फिर उसी झोली में गिरने की प्रबल संभावना है। इसलिए अब चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंकने से पहले ही सिद्धू की सुई एक बार फिर ‘दूल्हा कौन’ पर अटक गयी है। ज्यादातर राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस के लिए आदर्श स्थिति मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किये बिना ही चुनाव लडऩे की होगी, क्योंकि तब उसे दलित मुख्यमंत्री का तो लाभ मिलेगा ही, सिद्धू के चेहरे से जट्ट सिख समुदाय समेत युवा भी आकर्षित हो सकते हैं। लेकिन बृहस्पतिवार को पंजाब दौरे पर आये पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कार्यकर्ताओं से चर्चा के बाद मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने की बात कह कर विवाद को नये सिरे से हवा दे गये हैं। बेशक अब ऐसा करने का दबाव सिद्धू और चन्नी, दोनों की ओर से है। सिद्धू बेचैन हैं कि अगर उन्हें चेहरा घोषित किये बिना ही लड़े चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो चन्नी के दावे को नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होगा, क्योंकि पार्टी उन्हीं के 111 दिन के शासन के आधार पर वोट मांग रही है। चन्नी को भी लगता है कि खुद को चेहरा घोषित करवाने का उनके पास चुनाव पूर्व से बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि ऐतिहासिक राजनीतिक पराभव के दौर से गुजर रही कांग्रेस मौजूदा दलित मुख्यमंत्री को नजरअंदाज करने का जोखिम कम से कम चुनाव के दौरान तो नहीं ही उठायेगी।
वैसे सिद्धू के दावे के मद्देनजर दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सत्ता के तमाम प्रमुख दावेदार लगभग 20 प्रतिशत आबादी वाले जट्ट सिख मतदाताओं पर ही दांव खेलने को बेताब हैं। अकाली-बसपा गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरा सुखबीर बादल इसी समुदाय से आते हैं तो मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी ने पंजाब की जनता में राय शुमारी से जिन भगवंत मान को चेहरा चुनने का दावा किया है, वह भी जट्ट सिख ही हैं। आबादी के आंकड़ों की दृष्टि से यह स्थिति चौंकाने वाली लग सकती है, लेकिन वास्तविकता यही है कि खासकर 1966 में विभाजन के बाद से पंजाब की सत्ता में जट्ट सिख समुदाय का ही दबदबा रहा है। दलित समुदाय से चन्नी के रूप में दूसरा मुख्यमंत्री पंजाब को मिला है तो हिंदू मुख्यमंत्री का दांव चलने का राजनीतिक साहस अभी तक कोई राजनीतिक दल नहीं दिखा पाया है। जबकि लगभग सवा करोड़ सिख मतदाताओं के मुकाबले हिंदू मतदाताओं की संख्या 82 लाख है। 117 विधानसभा सीटों में से 78 सीटें सिख बहुल हैं, तो 37 हिंदू बहुल, जबकि शेष दो मुस्लिम बहुल। कैप्टन अमरेंद्र सिंह की पहले मुख्यमंत्री पद और फिर कांग्रेस से भी विदाई के बाद बागी अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा के साथ मिल कर भाजपा ने जो गठबंधन बनाया है, उसने मुख्यमंत्री के चेहरे पर अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं। पंजाब में सत्ता संघर्ष के चौथे कोण के रूप में उभर रहे इस गठबंधन में भाजपा सबसे बड़ा दल है, जो दशकों तक शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में जूनियर पार्टनर रहा। अगर राहुल गांधी के संकेत के मुताबिक कांग्रेस ने वाकई मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया तो उसकी पार्टी के अंदर क्या प्रतिक्रिया होगी, और उसके बाद क्या भाजपा-पंजाब लोक कांग्रेस- अकाली दल (संयुक्त) गठबंधन भी मुख्यमंत्री चेहरे का दांव चलेगा— यह देखना बेहद दिलचस्प होगा।

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