Presidential elections, the votes of the opposition have been divided

राष्ट्रपति के चुनाव में इस बात का बहुत शोर हो रहा है कि विपक्षी पार्टियों के वोट बंट रहे हैं और उनकी एकता भंग हो गई है। मीडिया में इस बात के लंबे लंबे कार्यक्रम चल रहे हैं कि भाजपा के मास्टरस्ट्रोक के आगे कैसे विपक्ष धराशायी हो गया है। लेकिन यह कोई बात नहीं है। राष्ट्रपति के हर चुनाव में विपक्ष के वोट बंटते रहे हैं। उम्मीदवार के आधार पर पार्टियां फैसला करती हैं।

शिव सेना ने दबाव में या जैसे भी एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का फैसला किया। लेकिन यह काम वह पहले भी कर चुकी है। भाजपा के साथ रहते हुए दो चुनावों में उसने कांग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन किया था। पहले 2007 में उसने मराठी के नाम पर प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया और फिर 2012 में पता नहीं किस आधार पर प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया।पता नहीं टेलीविजन चैनलों के पत्रकारों को ध्यान है या नहीं कि शिव सेना ने यह काम 1997 में भी किया था, जब कांग्रेस और भाजपा सबने मिल कर केआर नारायणन को समर्थन दिया था

तब शिव सेना ने भाजपा का साथ छोड़ कर निर्दलीय उम्मीदवार टीएन शेषन का साथ दिया था। इसी तरह 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम को कांग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टियों ने समर्थन दिया था लेकिन वामपंथी पार्टियों ने कैप्टेन लक्ष्मी सहगल तो उम्मीदवार बना कर उतारा था।

राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार राजद के समर्थन से मुख्यमंत्री थे लेकिन उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन किया, जबकि कांग्रेस और राजद ने बिहार की ही मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया था। इसी तरह 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के समय झारखंड मुक्ति मोर्चा एनडीए के साथ था और एनडीए ने आदिवासी उम्मीदवार के रूप में पीए संगमा को उतारा था पर जेएमएम ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया।

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